विश्व गुरु से प्रतिस्पर्धा तक: कहाँ खो गया भारत?


विकसित देशों की बराबरी करते- करते हम यह भूल चुके है। की हमारे देश का इतिहास हमें कुछ और सिखाता है। प्रतिस्पर्धा ज़रूरी है इसमे कोई दोराय नही है लेकिन कहाँ तक।क्या प्रतिस्पर्धा के चक्कर में अपनी संस्कृति, उन महान लोगों के विचारो और आजादी दिलाने वाले सुरवीरो को भूल जाना सही है? हर सिक्के के दो पहलु होते है, लेकिन क्या हमारा एक पहलू को गले लगा लेना और दुसरे पहलू को भूला देना सही है? क्यो हमे किसी और की बराबरी की जरूरत है, क्या हमारे इतिहास ने हमें कुछ नही दिया? भारत का इतिहास हम और आप केवल वहीं तक जानते है जहां तक विकसित देश हमें बताते है, लेकिन भारत का इतिहास इतना गहरा है की इसकी गहराई में उतरने के बाद पूरी पृथ्वी का इतिहास निकल आएगा। लेकिन यह हमें कोरी बाते लगेंगी, क्योंकि हमें अपने महान ॠषियो के लेख पर उतना यकीन नही है जितना उन विकसित देशों के द्वारा लिखे लेखों पर है। हम कुछ भी करे जब तक वे देश मोहर नही लगाते हमारे लोग उसे सच नही मानते है। यह वह भारत है जिसे विश्व गुरु कहा जाता था, जो वर्तमान में अपने शिष्यों तक के लिए अच्छे गुरू नही दे पा रहा है। बस एक प्रतिस्पर्धा है, की कैसे पश्चिमी देशों की बराबरी की जाए। फिर चाहें कोई नई खोज हो, विज्ञान हो, खान पान हो, रहन सहन हो, या जीवन जीना हर क्षेत्र में पश्चिमी देशों के जैसा होने की चाहता है। फिर चाहें अपने देश का स्वर्णिम इतिहास ही क्यो ना भूलना हो, वह संस्कृति हो या स्वामी विवेकानंद जैसे महान लोगों के विचार, या फिर वह सबसे पहले गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत देने वाले भारकराचार्य। लेकिन यह गलत है आपकी पश्चिमी मोहर के मुताबिक गुरुत्वाकर्षण की खोज तो न्यूटन ने की थी। बस इसी भारतीय इतिहास की बात मैं करता हूँ, लेकिन हम इसमे कोई विशेष रूचि नही है, और इसके पीछे सभी के अलग अलग मत होंगे की न्यूटन ने इसे सिद्ध किया जबकि भास्कराचार्य ने केवल लिखा, और भी ऐसे मत हो सकते है क्योंकि मतों की कमी नही है। कमी है तो ज्ञान की।


शिक्षा के लिए संघर्ष 

यह सबसे जरूरी और सबसे अहम है, की शिक्षा का क्या ओचितय है। और हम इसे कैसे देखते है। शिक्षा, मानव निर्माण में बहुत जरूरी है। यह शिक्षा ही है जो हमे सही गलत और अपने विचार रखना सिखाती है। शिक्षा से व्यक्तित्व का विकास हो, व्यक्ति अपने पैरों पर खडा हो सके। वह है सच्ची शिक्षा। लेकिन यहां सच्ची शिक्षा जैसे शब्द का प्रयोग क्यों किया गया,क्योंकि हमारा देश जो शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र रहा है आज युवाओं को अच्छी शिक्षा नही दे पा रहा है। जहां शिक्षा देने वाले से लेकर लेने वाले तक निस्वार्थ थे, आज वहाँ शिक्षा देने वाले शिक्षक एक स्वार्थ के साथ शिक्षा देते है। और उसका फल ये है की हमारे यहाँ स्नातक की पढाई के बावजूद भी एक युवा ठीक से यह नहीं बता पाता की उसने स्नातक की पढाई में क्या पढा था? शिक्षक ज्ञान देने से ज्यादा पैसे कमाने के लिए बना जा रहा है। अभी बीते दिनों पहले मेरी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई थी काफी समय बात करने के बाद मैने सुना उसने कहा की कुछ और नही हुआ तो शिक्षक बन जाऐगे। मै दंग रह गया की जीवन में कुछ नही हुआ तो शिक्षक बन जाऐगे! यह हैरानी की बात है।

शिक्षक केवल बच्चों को पढाने का ही काम नही करता है, वह उनका निर्माण करता है और जब तक एक शिक्षक इस मानसिकता के साथ आता रहेगा की कुछ भी नही हुआ तो शिक्षक सही। युवा केवल साक्षर होगा, जिसे पढना आएगा लिखना आएगा लेकिन वह शिक्षित नही होगा। शिक्षा को व्यवसाय बना दिया गया है, एक ऐसा व्यवसाय जिसकी नींव लाखों बच्चों के सपनो को मारकर बनी है। ये व्यवसाय केवल व्यवसाय नही है ये एक ऐसी जगह है जहाँ युवाओं के अपने सामर्थ्य अपनी कुशलता और क्षमता का अन्त करके उन्हें उन हजारों की तरह बनाया जाता है जो उनके पास कभी आए थे। लाखो की फीस के साथ ही इस व्यवसाय की चमक दमक बढ़ जाती है। श्रीमान अगर ऐसा नही होगा तो उच्च शिक्षा कैसे मिलेगी? शिक्षको को भी अपना घर चलाना होता है? क्या अब पढाने के पैसे भी ना ले? और शिक्षक के अनुभव का क्या? जैसे मतों वाले भी यहाँ होंगे। तो आप सभी के ऐसे मत ठीक है, सही है की शिक्षक को भी अपना घर चलाना होता है लेकिन आलीशन तरीक से, उसे अपने ज्ञान का मूल्य पता है शायद।

शिक्षा तो निस्वर्थ भाव से दी जानी चाहिये, यह केवल कोरी बातें नही है यह हमारे भारतवर्ष का इतिहास रहा है, यूँ ही नही हमें विश्व गुरु कहा जाता था। हमारी शिक्षा प्रणाली उस दौर में एक मिसाल थी। लेकिन हमने पश्चिमी देशों, विकसित देशों की बराबरी के चक्कर में अपनी शिक्षा प्रणाली, मौलिक विचारों और यहाँ तक की संस्कृति तक को भूला दिया। हमने अपना विश्व गुरु का दर्जा उन देशों को दे दिया जहाँ से विद्यार्थी मेरे देश भारत में पढने आते थे। भारत की शिक्षा प्रणाली को जानना है तो तक्षशिला विश्वविद्यालय को पढ़े उसकी व्यवस्था को जाने। तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नही थे। और ना ही कोई पाठ्यक्रम था, और ना ही कोई विशिष्ट प्रमाण पत्र दिया जाता था जैसा की आज है प्रतिशत, तुम्हारे इस वर्ष कितने प्रतिशत बने, अगर वह उसके मस्तिष्क मे छपे एक निश्चित संख्या से कम है तो आप उसकी नजर में कुछ नही है। लेकिन यह मेरे भारत की संस्कृति नही थी। भारत की शिक्षा प्रणाली में कोई विशेष प्रमाण पत्र या उपाधि नही दी जाती थी, और तो और शिष्य की योग्यता और रुचि को देखकर गुरु उसे शिक्षा दिया करते थे इसे के आधार पर उसके अध्ययन की अवधि तय करते थे। आज के जैसे नही की हर एक विधार्थी जिसकी रुचि भले ही उस तरफ ना हो पर उसे वही करवाया जाता है जोर जबरदस्ती, और जब परिणाम अनुकूल नही रहते तो भी शिक्षक की बजाय विधार्थी को जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह मेरे देश की शिक्षा प्रणाली नही है। मेरे देश का शिक्षक ऐसा नही हो सकता, लेकिन यह सत्य है।

तक्षशिला विश्वविद्यालय संसार का सबसे बड़ा विश्व विद्यालय था। चिकित्सा के क्षेत्र में इसकी तुलना या बराबरी नही की जा सकती थी। यहां वेद- वेदांत, शस्त्र संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, कला, साहित्य,  राजनीति,  युद्ध विद्या, अर्थशास्त्र, हस्तविद्या, मन्त्रविद्या, और ना जाने कितने ही विषय का गहनता से अध्ययन करवाया जाता था। यह ज्ञान था और अब भ्रम विज्ञान है। समय के साथ बदलाव होता है, और होना भी चाहिए क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है। लेकिन बदलाव का ढोंग करके अपनी संस्कृति और इतिहास को भूला दिया जाना कतई सही नही है। पेड तब तक ही खडा रह सकता है जब तक वह अपनी जड़ों से जुडा है। फिर चाहे बाहर कितना भी बदलाव आए वह बदलता रहेगा लेकिन उस बदलाव के चक्कर में अपनी जड़ को छोड़कर जो वो बदलना चाहे तो गिरना निश्चित है।

उपाधियों क्यों चाहिए? क्यो हमें एक कागज ऐसा चाहिए जिस पर लिखा हो 100%  प्राप्तांक। फिर चाहे उसकी गहराई में उतरे हो या नही फर्क नही पड़ता, हमारे पडोसीयो को यह पता लगना चाहिए की हमने क्या किया है। हमारी उपलब्धि पर भी हमें दूसरों की मोहर चाहिए। ऐसी उपलब्धता उस दिन चकनाचूर हो जाएगी जिस दिन किसी ज्ञानी व्यक्ति ने उसके संदर्भ में कुछ आपसे पुछ लिया। और अगर ऐसे कागज को रखना ही है तो उसे अपने ज्ञान के बाद रखो।

शिक्षा का सही अर्थ पहचानो युवाओं केवल भेड़ चाल मत चलो। हम भारत के निवासी है जिसका इतिहास अपने आप मे एक विषय है। जहां की हवाएँ तक एक शिक्षक है, कण कण में प्रमाण और साक्ष्य है। हमें किसी की मोहर की जरूरत नही है। फिर चाहें वह कोई भी हो। हमें हमारी उपलब्धियो के बारे में  किसी को प्रमाणित करने की जरूरत नही है। हमें हमारी जड़ की और लौटना है। हमारी संस्कृति की और लौटना है। ये पश्चिमी सभ्यता जानती है, हमारे सामर्थ्य के बारें में की हम क्या कर सकते है लेकिन जरूरत है तो इसे हमें जानने की। और इसकी शुरुआत केवल शिक्षा से ही संभव है, सच्ची शिक्षा जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का निमार्ण हो, मानसिक बुद्धि में विकास हो। तक्षशिला विश्वविद्यालय को यूँ ही नही जला दिया गया, उसकी असीम क्षमता और ज्ञान को पहचान लिया गया था की अगर भारतीयो के पास ऐसा ज्ञान रहा, तो हमारा क्या होगा। उसमें मौजूद हमारा ज्ञान राख कर दिया गया। 

निष्कर्ष 

इस के साथ हमने एक सिरीज़ शुरू की है, की कैसे हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे है। हमने हमारे इतिहास को भूला दिया है। जिससे लेकर आज का यह लेख जिसमें शिक्षा का संघर्ष इस पूरी सीरिज़ के एक विषय का समझने का प्रयास किया है की कैसे हम पढे लिखे तो है, लेकिन शिक्षित नही। भारत में शिक्षा को व्यवसाय बना दिया गया है। जहां मोटी मोटी फीस लेकर अपनी जेब भरी जा रही है। बच्चों के सपनो के साथ साथ उनके भविष्य से खेला जा रहा है। और यह वहाँ हो रहा है जो कभी विश्व गुरु कहा जाता था। जिसने विश्व को पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला और नालंदा दिया। जिसकी शिक्षा प्रणाली विश्वभर में प्रख्यात थी। वहां ऐसा हो रहा है की वहीं के शिष्यों को शिक्षक ही मिल रहे है। ऐसे शिक्षक जो उसे शिक्षा दे सके उसके भविष्य को निखार सके और अज्ञानता के अन्धकर से बाहर निकाल सके। 

इसका दुसरा अध्याय अगले शनिवार को पेश किया जाएगा। अपने विचार ज़रूर साझा करे। हमें आपकी प्रतिक्रिया का इन्तजार रहेगा। इस लेख का उद्देश्य निराश करना कदाचित नही है। इसका उदेश्य तो परिवर्तन और अपनी जड़ की और लौटना है। अपनी संस्कृति से जुड़ना है, शिक्षा प्रणाली पर विचार करना है। ताकि भारत को एक बार फिर विश्व गुरु बनाया जा सके। हमें किसी की बराबरी नही करनी है, हम भारत है। 

Jdee

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